हरिश्चंद्र व्यास – विनायक फीचर्स
बांसुरी की मधुर तान, दूर से आती हुई अलगोजे की आवाज, संगीत की कर्णप्रिय धुन या किसी से होने वाली प्यारी-प्यारी, मीठी-मीठी बातें कितनी अच्छी लगती है? वातावरण को कितना मीठा और रोचक बनाती हैं ये? उधर धड़-धड़ाती रेलें, चीखते इंजिन, दीवाली के पटाखे, शादियों के जुलूस, लाउडस्पीकरों की कर्ण भेदी आवाजें और सार्वजनिक सभाओं में दिये जाने वाले भाषणों का शोर वातावरण को नीरस और ऊबाऊ बनाते हैं। कई बार तो शोर इतना बढ़ जाता है कि सहन तक नहीं किया जा सकता। घरों का शोर, सड़कों का शोर, दफ्तरों और कारखानों का शोर, मिलों की मशीनों और खेतों में ट्रेक्टरों का शोर और न जाने कितने-कितने शोर हमें घेरे हुए हैं। ऐसे में मन चाहता है कि कहीं दूर बहुत दूर चला जाये जहां पूर्ण शांति हो। शांति की यह खोज ही हमारे ऋषि-मुनियों को पहाड़ों की कन्दराओं तक ले जाती थी। गुरूकुल भी शहरों से बहुत दूर हुआ करते थे। लेकिन वह जमाना तो कब का चला गया। आज तो शोर करने की आदत और शोर सुनने की मजबूरी दोनों साथ-साथ चलती है। शिकार होना पड़ता है बेचारे कानों को। हवा में तैरता हुआ शोर का प्रदूषण सीधे कानों पर वार करता है। अंत में होता यह है कि या तो शोर के वातावरण से अपने आप को बचायें या फिर शोर का शिकार होते-होते बहरे हो जाने के लिए तैयार रहें। तेजी से फैलता हुआ बहरापन आज की सभ्यता पर लानत भेजता है, पर हम हैं कि शोर को बढ़ाये जा रहे हैं। चारों ओर चिल्लपों, कान फाडऩे वाले गीत, सेलूनों तक में तेजी से बजने वाले ट्रांजिस्टरों की रेलमपेल, रात की शांति को भंग करने वाली भजन मण्डलियां, दिन में ट्रकों के हॉर्न, रेलगाडिय़ों की धड़धड़ाहट…. उफ। ….. कहां तक बरदाश्त करे कोई।
प्रकृति को देखें। न भोर का उगता हुआ सूरज शोर करता है, न हरे-भरे वृक्ष, न नदियों की कलकल में शोर है और न चिडिय़ों की चहक में, न चांद की चांदनी शोर करती है न कूदते-फुदकते और चौकड़ी भरते हुए हिरण। फिर शोर आया कहां से? किसने प्रदूषण फैलाया हवा में? जवाब यही होगा कि यह पाप (अगर इसे पाप मानें तो) हमने ही किया है और फल भी हमीं को भुगतना है।
शोर का यह मायाजाल शहरों में तो क्या, गांवों तक में फैला हुआ है। अलबत्ता शहर ज्यादा अशांत है। राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला दिल्ली के ध्वनिक मण्डल के अनुसार शहरों में शोर का औसत स्तर काफी ऊंचा है। अकेले दिल्ली को ही लें। शोर में वाहनों और रेलों का अंशदान सबसे अधिक रहता है। शोर तो घरों तक में घुस गया है। बहुमंजिली इमारतें, पास-पास आये हुए फ्लैट्स, पतली-पतली दीवारों वाले घर इतने शोर से भरे हुए हैं कि बाहर का शोर भीतर तक और भीतर का शोर बाहर तक बेखटके आता-जाता रहता है। एक ट्रक की औसत आवाज 90 डेसीबल के घेरे को भी लांघ जाती है। रात का समय.. शांति के साथ नींद लेने की इच्छा… और भारी ट्रकों का आना-जाना, नीरवता की दुनिया में बहुत बड़ा प्रहार है यह। पर बरदाश्त तो करना ही होता है।
पिन की आवाज की भी गणना की जा सकती है। यही कोई दो डेसीबल के बराबर है यह। शादी का औसत जुलूस 80 डेसीबल स्तर का होता है तो दीवाली के पटाखे 120 डेसीबल तक शोर में वृद्घि करते हैं। सार्वजनिक सभाओं में 85 से 90 डेसीबल तक की शांति भंग होती है। बाजारों का शोर 72 से 82 डेसीबल के बीच में तैरता रहता है। (संदर्भ एनवारन-मेण्टल नॉयज फेज्यूशन एण्ड कन्ट्रोल) शोर के इस मायाजाल को चीरना बहुत ही मुश्किल लगता है। आज तो गांव-गांव में रेडियों और टी.वी. हैं और ट्रकों का आना-जाना चलता रहता है। न भजन मण्डलियों को धीमी आवाज की आदत है और न लोगों में शांति से बातचीत करने का सलीका ही है। सो शोर बढ़ रहा है, बढ़ता जा रहा है। शहरों में भी और गांवों में थी।
कितना शोर बरदाश्त किया जा सकता है- इस बिन्दु पर कई अध्ययन हुए हैं। यों तो यह बात व्यक्तिगत क्षमता या आदत की है लेकिन औसत निकालें तो यह स्थिति बनती है-
भवनों के भीतर शोर का स्तर
- फिल्मों, रेडियो, टी.वी. आदि। 30 डेसीबल
- थियेटर या नृत्य/संगीत हॉल. 35 डेसीबल
- चिकित्सालय/होटल आदि. 40 डेसीबल
- कार्यालय/पुस्तकालय. 45 डेसीबल
दुकानें/बैंक आदि. 50 डेसीबल
-भोजनालय/वर्कशॉप. 55 डेसीबल
चिकित्सालयों या वृद्घ पुरूषों के निवास के आसपास रात्रि में 35, दिन में 45 तथा अधिकतम 55 डेसीबल शोर सहन किया जा सकता है। आवासीय बस्तियों में रात को 45, दिन को 55 तथा अधिकतम 70 डेसीबल, व्यावसायिक क्षेत्रों में औसत और अधिकतम क्रमश: 60 और 75 एवं औद्योगिक क्षेत्रों में 65 और 80 डेसीबल शोर स्वीकार्य सीमा में माना जा सकता है। लेकिन सीमा का यह उल्लंघन तो चलता ही रहता है। दिल्ली में 90, बंबई में 75 और रियो-डी-जेनेरा का 130 डेसीबल का शोर, पटाखों का 120, बाजारों का 72 से 82 तथा सार्वजनिक सभाओं का 85 से 90 डेसीबल का शोर आखिर किस खाते में डाला जाये? इसका एक ही खाता है अशंति और बहरेपन का खाता। खाता खुल चुका है। देखें इंसान की यह तजबीज, शोर की यह आदत और अशांति को आमंत्रण देने की यह सनक उसे कहां तक ले जाती है? इंसान के कान कम से कम 0 और अधिक से अधिक 180 डेसीबल आवाज की ध्वनि श्रृंखला का सामना कर सकते हैं। 0 से ध्वनि की शुरूआत है और 180 दर्द की शुरूआत। 0 से ध्वनि का आभास सा होता है और 180 से दर्द की भयावहता की शुरूआत। कई लोग 85 डेसीबल शोर को भी बरदाश्त नहीं कर सकते तो कई ऐसे हैं तो 115 तक तो पचा जाते हैं लेकिन 140 तक आते-आते उन्हें भी दर्द सा महसूस होने लगता है। इन्सानी कान की इस अलग-अलग फितरत को मात करता हुआ आज का शोर सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता चला जा रहा है। कौन रोकेगा इसे? कब रोकेगा इसे? कितना रोक पायेंगे हम? ये वे प्रश्न हैं जिनका जवाब आज की सभ्यता को देना है।
अतार्किक और अत्यधिक शोर वातावरण को प्रदूषित करता है क्योंकि यह जीवन की गुणवत्ता को घटाने वाला माना जाता है। यह मनुष्यों पर विपरीत प्रभाव डालता है जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्घ होता है। इसके दुष्परिणाम तीन स्तरों पर दिखाई देते हैं-
(1) श्रवण के स्तर पर : श्रवण तंत्र गड़बड़ा जाता है। यह संतोषजनक ढंग से काम नहीं कर पाता।
(2) शारीरिक स्तर पर : शरीर की क्रियाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। स्नायुगत अव्यवस्था, सिर दर्द एवं स्मृति लोप आदि का सामना करना होता है।
(3) व्यवहार के स्तर पर : व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार में अंतर आने लगता है।
शोर के प्रतिकूल प्रभावों को अनेक प्रकार से व्याख्यायित किया जा सकता है। इसके कारण कुशलता में कमी आती है क्योंकि मानसिक तनाव, कुण्ठा, चिड़चिड़ापन और कार्य में बाधा जैसी कठिनाइयों के कारण व्यक्ति अपने काम को संतोषजनक ढंग से नहीं कर पाता। उसके आराम में भी खलल पड़ती है। नींद की कमी, सम्प्रेषण में असुविधा और व्यक्तिगत क्षणों में अतिक्रमण के साथ-साथ स्वयं में जोर से बोलने की आदत का विकास हो जाने से व्यक्ति बैचेन हो उठता है। शोर व्यक्ति को परेशान किये रखता है। न उसे किसी चीज में आनंद आता है और न वह ध्यान को केन्द्रित ही कर पाता है। उसकी श्रवण शक्ति भी अस्थायी रूप से कम हो जाती है। अत्यधिक शोर से रक्तचाप और हृदय रोग भी होना संभव है। जिन मजदूरों को अधिक शोर के मध्य काम करना होता है वे हृदय रोग, रक्तचाप, शारीरिक शिथिलता आदि अनेक रोगों से ग्रस्त रहते हैं।
डेसीबल की निम्न तालिका शरीर पर पडऩे वाले प्रभावों को रेखांकित करती है –
घर में शोर और उसका नियंत्रण :- हम लोग शोर के संसार में निवास कर रहे हैं। बाहर का संसार तो शोर से भरा हुआ है ही पर घर का छोटा सा संसार भी उससे अछूता नहीं है। सड़कों का शोर घरों में भी गंूजता रहता है। ऊपर आकाश भी हवाई जहाजों के माध्यम से शोर मचाता है। घरों में हम स्वयं अपने महान शत्रु सिद्घ होते हैं। हमारे पड़ौसी भी कुछ कम नहीं हैं। घरों में क्या नहीं है, धोने और सुखाने की मशीनें, आवाज वाले बिजली के उपकरण, शौचालयों को जोर-जोर से फ्लश करने की स्थितियां, रेडियो, टेलिविजन और अनेक प्रकार के वाद्य यंत्र सब मिलकर शोर की मात्रा में वृद्घि ही तो करते हैं। कई बार हमें पड़ौस का अवांछित शोर भी सहना पड़ता है। पड़ौसियों के बच्चों का शोर, कुत्तों का भौंकना, कारों के गर्म होने की गडग़ड़ाहट, चीखने-चिल्लाने की आवाजें, वायलर की आवाजें, वाद्य यंत्र, रेडियो और टेलिविजन के शोर आदि मिलकर हंगामा मचाये रहते हैं। इससे नींद में बाधा पड़ती है और आराम के क्षणों पर अतिक्रमण होता है।
घरों के शोर पर निम्नांकित तरीकों से नियंत्रण किया जा सकता है-
1- ऐसे उपकरण खरीदना जो शोर मचाने वाले न हों। कई उपकरण अपेक्षाकृत कम ध्वनि के साथ काम कर सकते हैं।
2- किचन की सिंक पर यदि फायबर ग्लास की एक इंच मोटी परत लगी हो तो आवाज कम होगी।
3- घरों के एयर कंडीशनर्स में ध्वनि सोख पदार्थ लगाने से आवाज कम होती है।
4- शोर मचाने वाले पंखों की तुरंत देखभाल की आवश्यकता है। उसे तत्काल ठीक करवा लेना चाहिए।
5- पड़ौसियों से कम शोर करने की गुजारिश की जा सकती है। ज्यादा शोर मचाने वालों के लिए पुलिस की सहायता ली जा सकती है क्योंंकि कुछ लोग दूसरों को अनावश्यक रूप से परेशान किये रहते हैं।
निर्माण कार्यों से होने वाले शोर का नियंत्रण :
ऐसे शोर से बचाव के भी कई उपाय हैं-
- यंत्रों की आंतरिक बनावट ऐसी हो जिसमें अधिक ध्वनि की संभावना को क्षीण किया जा सके।
- ध्वनि कम करने के लिए यंत्रों के साथ साउण्ड एब्र्जाेबिंग सिस्टम का होना आवश्यक है।
- ध्वनि के मार्ग में बाधा उत्पन्न करके भी शोर को कम किया जा सकता है।
- ऐसे कानून बने हुए हैं जो शोर की हदों को तय करते हैं तथा सीमा से बाहर के शोर पर वैधानिक उपायों की सुरक्षा देते हैं उन पर अमल करवाया जा सकता है।
सड़कों और कारखानों के शोर और उनका नियंत्रण :
सड़कों और कारखानों के शोर को स्वीकृत सीमा में रखने के लिए कई उपाय हैं। ये निम्नानुसार हैं–
1- शहर के भीतरी भागों में भारी ट्रकों या वाहनों के आवागमन पर रोक। अन्य भागों में बस्तियों से दूर वाली सड़कों से उनका आवागमन।
2- शोर मचाने वाली मशीनों में ध्वनि अवरोधकों का उपयोग।
3- परीक्षा के दिनों में शहरों में ध्वनि विस्तारकों पर रोक। चिकित्सालयों और विद्यालयों के आस-पास के इलाकों में भी ध्वनि विस्तारकों के उपयोग में कमी।
4- धर्म स्थलों, मेलों, उत्सवों, सभाओं आदि में कम से कम समय के लिए ध्वनि विस्तारकों के उपयोग का आग्रह।
5- ऐसे उपकरणों का निर्माण जिनसे कारखानों के श्रमिक बड़ी-बड़ी मशीनों की गडग़ड़ाहट से त्रस्त न हों, उसे कम से कम सुन सकें।
6- श्रमिकों के लिए ईयर प्लग्स और कनटोप आदि की व्यवस्था।
7- ध्वनि निवारक भवनों का तथा शोर मुक्त क्षेत्रों का निर्माण।
8- यंत्रों की बराबर जांच, आवश्यक मरम्मत और उपचार का प्रबंध।
9- कल कारखानों की शहरी क्षेत्रों से बाहर की ओर स्थापना।
10- वृक्षारोपण पर अधिक से अधिक बल दिया जाना ताकि ध्वनि अवशोषित हो सके।
इंसान के भाग्य में ध्वनि एक वरदान बन कर आई है लेकिन अपनी हरकतों से ही वह इसे अभिशाप में बदलता जा रहा है। आज पर्यावरण के अनेक शत्रु पैदा हो चुके हैं तब शोर जैसे महाशत्रु को जगाना हमारे लिए बहुत भारी पडऩे वाला है। अनचाही आवाजें और कर्कश ध्वनियां वातावरण को प्रदूषित करती रहती हैं। प्राकृतिक आवाजें भी तेज हो सकती हैं जैसे बादलों की गडग़ड़ाहट या बिजली की कौंध के बाद की तेज ध्वनि लेकिन वे अल्पकालीन होती है। हवाएं भी सांय-सांय करती हैं पर वे हमारे लिए अधिक समस्याएं पैदा नहीं करती।
इंग्लैण्ड मेंं शोर निरोधक कानून 1960 के अंतर्गत यह व्यवस्था है कि रात्रि को 9 बजे से प्रात: 8 बजे तक ध्वनि विस्तारक यंत्र काम में नहीं लिये जा सकते। प्रतिबंधित समय में अनुमति लेकर ही उनका उपयोग किया जा सकता है। अमेरिका में शोर एवं प्रदूषण निरोधक कानून 1970 के अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण अभिकरण का यह दायित्व है कि शोर के नियमन के लिए वैधानिक कदमों का सहारा ले। अमेरिका के विभिन्न राज्यों में भी शोर नियंत्रण के कई कानूनी प्रावधान हैं।
भारतीय संविधान की धाराएं 39 (ई) 47, 48-ए तथा 51 (ए से जी) में शोर नियंत्रण के लिए कई कानूनी व्यवस्थाएं की गई हैं। भारतीय मोटर वाहन कानून 1939 में भी शोर नियंत्रण के अनेक प्रावधान हैं।
कानून अपनी जगह है और जनता की जीवन शैली अपनी जगह। कानून कई बार बड़ा ही कमजोर सिद्घ होता है। न तो जनता उसकी परवाह करती है और न अधिकारी उसे लागू करने को कटिबद्घ ही होते हैं। इसीलिए शोर बढ़ रहा है, बढ़ता ही जा रहा है। शिक्षा और जागरूकता ऐसे प्रभावी उपाय हैं जो ध्वनि की तीव्रता के शमन को लागू कर सकते हैं। नागरिकता की शिक्षा एवं संचार साधनों के उपयोग से अनवरत जागरूकता की सतत आवश्यकता है। तभी जाकर इस समस्या का समाधान हो पाएगा।