✍️ डा. मदन मोहन पाठक, वरिष्ठ पत्रकार
हर साल 14 सितंबर को पूरे देश में हिंदी दिवस धूमधाम से मनाया जाता है। सोशल मीडिया पर बधाइयों की बाढ़ आ जाती है, सरकारी दफ्तरों में औपचारिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं और मंचों से हिंदी के महत्त्व पर लंबे-लंबे भाषण दिए जाते हैं। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या हिंदी को सच में वह स्थान और दर्जा मिल पाया है, जिसकी उसे आवश्यकता है और जिसका वह हकदार है?
हिंदी की वास्तविक स्थिति
हकीकत यह है कि आजादी के 77 साल बाद भी हिंदी अभी भी ‘संघर्षरत भाषा’ की स्थिति में है। यह विडंबना है कि जिस देश में 60% से अधिक लोग हिंदी भाषी हैं, वहीं सरकारी दफ्तरों, बैंकों, कॉलेजों, न्यायालयों और यहां तक कि रेलवे या परिवहन सेवाओं तक—अंग्रेजी का बोलबाला है।
बैंक के फॉर्म अंग्रेजी में,
कॉलेजों की पढ़ाई अंग्रेजी में,
नौकरी की परीक्षाएं अंग्रेजी में,
गाड़ी और रेलवे की घोषणाएं अंग्रेजी में—
तो फिर हिंदी आखिर कहां टिकती है?
हिंदी बनाम अंग्रेजी का द्वंद्व
अंग्रेजी का जानना गलत नहीं है, लेकिन सवाल है कि क्या यह हमारी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा को दबाकर आगे बढ़ना चाहिए? अंग्रेजी जानने वाला व्यक्ति “प्रतिष्ठित” माना जाता है, जबकि हिंदी में दक्ष व्यक्ति को अक्सर कमतर आंका जाता है। यही मानसिक गुलामी हमारी सबसे बड़ी समस्या है।
शासन-प्रशासन की भूमिका
संविधान ने हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया, लेकिन व्यावहारिक धरातल पर अंग्रेजी ही आज भी सर्वोच्च है।
उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में हिंदी में काम नहीं होता।
सरकारी आदेश और महत्वपूर्ण दस्तावेज अंग्रेजी में ही जारी होते हैं।
यहां तक कि प्रशासनिक सेवा (IAS, IPS) की परीक्षाओं में हिंदी माध्यम के अभ्यर्थी को अंग्रेजी माध्यम के सामने अक्सर हाशिए पर खड़ा कर दिया जाता है।
जन सामान्य की स्थिति
आम आदमी हिंदी में बात करता है, सोचता है, सपने देखता है—फिर भी सरकारी कामकाज के लिए उसे अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ता है। यही कारण है कि भाषा और व्यवस्था के बीच एक गहरी खाई पैदा हो गई है।
हिंदी को सशक्त करने के उपाय
1. शासन-प्रशासन में प्राथमिक भाषा हिंदी हो – अंग्रेजी को विकल्प रखा जाए, न कि प्राथमिक।
2. शिक्षा व्यवस्था में बदलाव – उच्च शिक्षा से लेकर तकनीकी शिक्षा तक हिंदी में गुणवत्तापूर्ण सामग्री उपलब्ध कराई जाए।
3. न्यायालय में हिंदी – अदालतों की भाषा हिंदी होनी चाहिए, ताकि आम जनता न्याय को समझ सके।
4. प्रौद्योगिकी में हिंदी का विस्तार – कंप्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट के युग में हिंदी का तकनीकी रूप से विस्तार किया जाए।
5. मानसिक गुलामी से मुक्ति – जब तक समाज अंग्रेजी को “प्रतिष्ठा की भाषा” मानता रहेगा, तब तक हिंदी पिछड़ी ही रहेगी।
निष्कर्ष
हिंदी दिवस पर केवल बधाई संदेश या कविताओं का आदान-प्रदान ही काफी नहीं है। जरूरत है गहन आत्ममंथन की। सवाल यह है कि क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को ऐसी व्यवस्था सौंपना चाहते हैं, जहां वे अपनी ही मातृभाषा में दो शब्द लिखने-पढ़ने से कतराएं?
हिंदी केवल भाषा नहीं, बल्कि हमारी पहचान है, संस्कृति है, और अस्मिता का प्रतीक है। यदि हम इसे उचित स्थान नहीं देंगे, तो आने वाले समय में यह केवल “हिंदी दिवस” तक सीमित होकर रह जाएगी। अब समय आ गया है कि शासन-प्रशासन और समाज दोनों इस ओर गंभीर कदम उठाएं—वरना यह सोई हुई चेतना कभी नहीं जागेगी।

