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February 8, 2025

आइये जानते हैं भगवान के दर्शन कैसे करें

News Deskby News Desk
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आइये जानते हैं भगवान के दर्शन कैसे करें
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भगवान के दर्शन कैसे करें

(पं. लीलापत शर्मा – विभूति फीचर्स)

देव दर्शन रा भगवान के दर्शन तब तक अधूरे हैं, जब तक हम उनका दर्शन (फिलॉसफी) भी हृदयंगम करने के लिए तत्पर न हों। तीर्थों एवं मंदिरों में अगणित लोग देव दर्शन के लिए जाते हैं। प्रतिमाओं को देखते भर हैं। हाथ जोड़ दिया या एक-दो रुपया चढ़ावे का फैंक दिया अथवा पुष्प, प्रसाद आदि कोई छोटा-मोटा उपहार उपस्थित कर दिया, इतने मात्र से उन्हें यह आशा रहती है कि उनके आने पर देवता प्रसन्न होंगे, अहसान मानेंगे और बदले में मनोकामनाएं पूर्ण कर देंगे। आमतौर से यही मान्यता अधिकांश दर्शनार्थियों की होती है, पर देखना यह है कि क्या यह मान्यता ठीक है, क्या उसके पीछे कुछ तथ्य भी हैं या ऐसे ही एक भ्रम परंपरा से भ्रमित लोग इधर से उधर मारे-मारे फिरते हैं?

देव-दर्शन के साथ-साथ यह भावनाएं अविच्छिन्न रूप से जुड़ी रहनी चाहिए कि दिव्यता ही श्रद्धा एवं सम्मान की अधिकारिणी है। हम देव प्रतिमा के माध्यम से उनकी विश्व व्यापी दिव्यता के सम्मुख अपना मस्तक झुकाएं, उनका प्रकाश अपने अंत:करण में प्रवेश कराएं और जीवन के कण-कण को दिव्यता से ओत-प्रोत करें। देवता का अर्थ है दिव्यता का प्रतीक प्रतिनिधि। आदर्शवाद देवता है, कर्तव्य देवता है, प्रेम देवता है, क्योंकि उनके पीछे दिव्यता की अनंत प्रेरणा विद्यमान रहती हैं। चाहे मनुष्य हो, चाहे नदी, तालाब अथवा देव प्रतिमा। जिसमें भी हम दिव्यता देखेंगे उसी में देवत्व भी परिलक्षित होगा और जहां देवत्व हो, उसका श्रद्धापूर्ण सम्मान एवं अभिवादन होना ही चाहिए। देव प्रतिमा को जब ईश्वर का प्रतीक या प्रतिनिधि माना जाए तो उसके आगे सिर झुकेगा ही। जब कण-कण में ईश्वर विद्यमान है तो देव प्रतिमा वाला पत्थर भी उसकी सत्ता से रहित नहीं हो सकता।

इस प्रकार देव प्रतिमा में ईश्वर की मान्यता करके श्रद्धापूर्वक उसके आगे मस्तक झुकाने में हर्ज कुछ नहीं, लाभ ही है। जो अक्सर दिन में अन्य अवसरों पर बन नहीं पाता, वह देव दर्शन के माध्यम से कुछ क्षण के लिए तो प्राप्त हो ही जाता है। इस दृष्टि से यह उत्तम ही है, पर भूल यह की जाती है कि इतनी मात्र प्रारंभिक क्रिया को हम लक्ष्य पूर्ति का आधार मान लेते हैं। यह तो ऐसी ही बात है, जैसे अस्पताल दर्शन से रोग मुक्ति, स्कूल दर्शन से ग्रेजुएट की उपाधि प्राप्त होने की आशा करना। बेशक अस्पताल रोग मुक्त करते हैं और स्कूल ग्रेजुएट बनाते है, पर लंबे समय तक एक क्रमबद्ध आचरण करना पड़ता है तभी वह लाभ संभव होता है। इसी प्रकार देव-दर्शन से जो प्रारंभिक उत्साह एवं ध्यानाकर्षण होता है, उसे लगातार जारी रख कर यदि आत्म निर्माण की मंजिल पर चलते रहा जाए तो समयानुसार वह दिन आ सकता है जब ईश्वर दर्शन, स्वर्ग मुक्ति आदि का मनोरथ पूरा हो जाए। किसी तीर्थ या देव मंदिर की प्रतिमा को आंखों से देखने या पैसा चढ़ा देने मात्र की क्रिया करके, यह आशा करना कि- ‘अब हम कृत्कृत्य हो गए। हमारी साधना पूर्ण हो गई। यह दर्शन या पूजन हमें स्वर्ग प्राप्त करा देगा’ सर्वथा उपहासास्पद है।

हम अपने ढंग के अनोखे बुद्धिमान हैं, जिन्होंने सस्ते से सस्ते मूल्य पर कीमती उपलब्धता प्राप्त करने की तरकीबें खोज निकाली हैं। हमारी मान्यता है कि अमुक तीर्थ, देव-प्रतिमा या संत का दर्शन कर लेने मात्र से आत्म-कल्याण का लक्ष्य अत्यंत सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। विचारणीय यह है कि क्या हमारी यह मान्यता सही हो सकती है? विवेक द्वारा इसका एक उत्तर हो सकता है-नहीं, कदापि नहीं। काशीवास करने से यदि मनुष्य स्वर्गगामी हुआ करते तो यहां रहनेे वाले दुष्ट, दुराचारियों को भी सद्गति मिल जाती। कर्मफल जैसा कोई सिद्धांत ही शेष न रहता। तब कोई सत्कर्म करने की आवश्यकता ही न समझता, तब ईश्वरीय न्याय एवं व्यवस्था जैसी कोई वस्तु भी इस संसार में न होती। तब पक्षपात की ही आपाधापी का बोलबाला रहता। काशीपति से जिनकी पहचान हो गई, वे उनके शहर में रहने के कारण वही लाभ उठाते जो आजकल भ्रष्टाचारी मिनिस्टर लोग उठाया करते हैं। जब ईश्वर भी वैसा ही करता है तब मनुष्यों को पक्षपात करने पर दोष कैसे दिया जा सकेगा? जब दर्शन करने मात्र से देवता इतने प्रसन्न हो जाते हैं कि जीवन निर्माण की साधना के लंबे मार्ग पर चलने वालों से भी अधिक लाभ बात की बात में दे देते हैं, तब तो उन लोगों की दृष्टि में दर्शन से बड़ी बात और क्या हो सकती है?

देव मंदिरों में दर्शन हमें अवश्य करने चाहिए और जिन देव आत्मा की वह प्रतीक प्रतिमा है, उसके सद्गुणों एवं सत्कर्मों को अपने में प्रतिष्ठापित एवं विकसित करने का विचार करना चाहिए। वह विचार इतना भावपूर्ण प्रेरक हो कि देवता की विशेषताएं जीवन में उतारने की प्रेरणा प्रस्तुत करने लगे तो समझना चाहिए कि देव-दर्शन, सफल हुआ। हनुमान जी का दर्शन करके ब्रह्मचर्य, सत्यपक्ष की नि:स्वार्थ सहायता, दुष्टता के दमन में अपने प्राणों तक की बाजी लगा देना, जैसी विशेषताएं अपने भीतर बढ़ानी चाहिए। भगवान राम के दर्शन करने पर तो पिता-माता के प्रति श्रद्धा, भाइयों के प्रति सौहार्द, पत्नी के प्रति अनन्य स्नेह, दुष्टता से जूझने का साहस और भगवान कृष्ण के दर्शन करने पर मित्रता निबाहना, असुरता से लड़ना, रथवान जैसे कामों को भी छोटा न मानना, गीता जैसी मनोभूमि रखना आदि श्रेष्ठ तत्वों को हृदयंगम करना चाहिए। शंकर जी से सहिष्णुता, उदारता, त्याग-भावना, सूर्य से तेजस्वी एवं गतिमान रहना, दुर्गा से प्रतिकूलताओं के साथ साहसपूर्वक जूझना, सरस्वती से ज्ञान का अविरल विस्तार करना जैसे गुणों की प्रेरणा प्राप्त की जा सकती है। यह प्रेरणा जितनी ही प्रबल होगी, देव-दर्शन उतना ही सार्थक माना जाएगा। यदि इस प्रकार से कोई गुण चिंतन न किया गया और उन विशेषताओं को अपने जीवन में बढ़ाने के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया गया तो फिर किसी प्रतिमा के दर्शन मात्र से स्वर्ग जाने या मनोकामनाएं पूर्ण होने जैसी मान्यता बना बैठना असंगत ही होगा। मंदिरों में दर्शन करने का लाभ तो है, पर इतना नहीं जितना लोगों ने मान रखा है। अत्युक्ति सर्वथा अनुपयुक्त ही होती है। फिर चाहे वह अल्पविकसित लोगों को धर्म की ओर कदम बढ़ाने के प्राथमिक प्रयास के रूप में ही क्यों न की गई हो।

मनुष्यों का दर्शन भी ठीक इसी प्रकार है। किन्हीं ज्ञानी, संत, त्यागी, महात्मा या महापुरुष का दर्शन करना उनके प्रति श्रद्धा सद्भावना का होना प्रकट करता है, पर इतने से ही कुछ काम चलने वाला नहीं, कदम आगे भी बढऩा चाहिए। जिनके दर्शन किए गए हैं, उनमें यदि कोई विशेषताएं हैं तो उन्हें ग्रहण करना चाहिए, उनके उच्चादर्शों या सिद्धांतों में से कोई अपने लिए उपयुक्त हो तो उसे ग्रहण करना या व्यवहार में लाना चाहिए। उनसे आत्मीयता बढ़ाकर प्रगति की दिशा में सहयोग लेना चाहिए। ऐसा करने पर ही यह दर्शन लाभदायक होगा अन्यथा आजकल जिस मान्यता को लेकर लोग दर्शन करने जाया करते हैं, उसमें तथ्य अल्प और भ्रांति अधिक है। आज तो लोग देवताओं की तरह मनुष्यों के दर्शनों से भी यह आशा करते हैं कि दूर से चलकर देखने आने को वे अपने प्रति किया गया अहसान मानेंगे और यह अहसान की कृतज्ञता दिखाने के बदले हमारी मनोकामनाएं, पूरी कर देंगे।

यह आशा-दुराशा मात्र है क्योंकि कल्याण, कर्मों से ही होता है। सत्कर्मों के लिए प्रेरणा प्राप्त करना ही तो दर्शन का उद्ïदेश्य होना चाहिए, पर प्रेरणा पाने और अपने को बदलने की बात मन में आए ही नहीं, देखने से ही सब कुछ मिल जाने की आशा की जाए, तो यह किसी भी प्रकार संभव हो सकने वाली बात नहीं है। (विभूति फीचर्स)

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