वरिष्ठ पत्रकार प्रयाग पांडे — नैनीताल
अंग्रेजों के प्रकृति प्रेम एवं औपनिवेशिक शासकों की तात्कालिक आवश्यकताओं के चलते आज से करीब 182 साल पहले कुछ यूरोपीय नागरिकों की स्वतंत्र पहल से नैनीताल नामक वर्तमान नगर की बसावट शुरू हुई। नैनीताल को एक आदर्श हिल स्टेशन के रूप में आबाद और विकसित करने के पीछे अंग्रेजों का प्रकृति प्रेम के साथ लालच भी था और जरूरत भी। इसमें कोई दो राय नहीं कि नैनीताल के प्रति अंग्रेजों के मन में एक विशेष आत्मीयता का भाव था। आत्मीयता के इस रिश्ते को उन्होंने नैनीताल के साथ ईमानदारी से निभाया भी।
नैनीताल को अंग्रेजों ने एक निश्चित जनसंख्या के लिए बसाया। अंग्रेज नैनीताल को ‘कंट्री रिट्रीट’ कहते थे। इसी के मद्देनजर अंग्रेजों ने यहाँ आधारभूत सुविधाओं का ढाँचा खड़ा किया गया था। 1890 के आसपास जब नैनीताल की मौसमी आबादी तकरीबन दस हजार के आसपास थी,तब यहाँ की भार वहन क्षमता का आकलन किए जाने की बात होने लगी थी। तब अनेक ब्रिटिश अधिकारियों का कहना था कि नैनीताल अति मनुष्यों से भर गया है।लिहाजा यहाँ आबादी का और अधिक बोझ डाला जाना अनुचित है। अंग्रेज नैनीताल के भंगुर पर्यावरण से बखूबी वाकिफ थे। उनकी हरेक योजनाएं दीर्घकालिक नजरिए से बनती थीं। अंग्रेजों ने आज से 137 साल पहले नैनीताल को रोप -वे से जोड़ने के बारे में सोच लिया था। इसके लिए बाकायदा रोप -वे की योजना को स्वीकृति भी प्रदान कर दी गई थी।
प्रारंभिक काल में नैनीताल आने-जाने के लिए सबसे बड़ी समस्या रास्तों की थी। सबसे पहले बरेली से बाजपुर होते हुए कालाढूंगी पहुँचा जाता था, वहाँ से निहाल नदी के किनारे- किनारे खुर्पाताल होते हुए नैनीताल। शुरुआत में यह पूरी यात्रा पैदल ही तय करनी पड़ती थी। 1847 में निहाल पुल से खुर्पाताल होते हुए नैनीताल तक अश्व मार्ग बना दिया गया था। फिर पुरुषों के लिए घोड़े और महिलाओं एवं बच्चों के लिए डांडी से यात्रा करना संभव हो गया था। 1884 में काठगोदाम तक रेल पहुँचने के बाद 1885 में काठगोदाम से ब्रेवरी तक सड़क बनाई गई। इसके बाद ब्रेवरी तक तांगे आने लगे थे। ब्रेवरी से नैनीताल आने के लिए घोड़े, डांडी और पालकी या फिर पैदल एकमात्र यातायात के साधन थे। ब्रिटिश साम्राज्य में भारत के आका समझे जाने वाले अविभाजित भारत के वॉयसराय और नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंसेज के लेफ्टिनेंट गवर्नर से लेकर ब्रिटिश शासन के सभी आला अफ़सरान घोड़े की सवारी कर ही नैनीताल आते-जाते थे। 1893 में नैनीताल में तांगे आने लगे थे।
तांगों द्वारा यात्रा की सुविधा उपलब्ध हो जाने के बावजूद अभी भी नैनीताल में आवागमन बहुत आसान नहीं था। स्थानीय मौसमियत का आवागमन पर सीधा असर पड़ता था। बरसात और ठंड के दिनों में नैनीताल की आवाजाही बेहद श्रमसाध्य एवं तकलीफ़देह होती थी।बरसात में भू -धंसाव की घटनाएं बढ़ जाती थीं, जिससे आवागमन बाधित होता था। अगर मौसम अनुकूल भी हो तो भी नैनीताल आने -जाने में बहुत समय लगता था। आवागमन की इस समस्या से निजात पाने के लिए मई,1887 में मिस्टर हन्ना नामक एक अंग्रेज ने यातायात और सामान लाने, ले जाने के लिए नैनीताल से कालाढूंगी की ओर तीन हजार फीट लंबे रोप-वे के निर्माण का सुझाव दिया। ब्रिटिश प्रशासन ने इस प्रस्ताव पर अपनी सैद्धांतिक सहमति दे दी। इस कार्य को संपादित करने के लिए 1888 के प्रारंभिक दिनों में ‘नैनीताल रोप -वे कंपनी लिमिटेड’ बन गई। अगस्त,1888 में मिस्टर हन्ना ने रोप-वे के लिए 9900 रुपये की शुरुआती योजना बना ली थी। मिस्टर हन्ना की रोप-वे की इस योजना का नैनीताल नगर पालिका की सार्वजनिक निर्माण समिति ने व्यवहारिक पक्षों का अध्ययन किया। उस दौर में समिति में सार्वजनिक निर्माण विभाग के जिला अधिशासी अभियंता भी सदस्य होते थे। तब तत्कालीन टिहरी रियासत को छोड़ शेष उत्तराखंड में एक ही इंजीनियर होते थे, जिन्हें जिला इंजीनियर कहा जाता था। योजना के सभी पक्षों की जाँच-परख के बाद नगर पालिका की सार्वजनिक निर्माण समिति ने इस योजना को स्वीकृति प्रदान कर दी। इसके बाद नगर पालिका के अधिकारियों ने प्रस्तावित संपूर्ण रोप-वे मार्ग का स्वयं स्थलीय मुआयना किया। 8 अक्टूबर,1888 को नगर पालिका कमेटी की बैठक में भी इस योजना को स्वीकृति दे दी गई। अंतिम स्वीकृति के लिए योजना को कुमाऊँ के वरिष्ठ सहायक कमिश्नर को भेज दिया गया।
प्रस्तावित रोप -वे के तार स्लीपी हॉल एवं लौंगडेल से होते हुए जाने थे। 30 नवंबर, 1888 को नगर पालिका, नैनीताल के तत्कालीन उपाध्यक्ष जे. ओकशॉट ने कुमाऊँ के वरिष्ठ सहायक आयुक्त को रोप-वे के तारों को ले जाने के लिए स्लीपी हॉल और लौंगडेल की जमीन के निश्चित हिस्सों को ‘अनिवार्य अधिग्रहण एक्ट-x-1870’ की धारा -12 के अंतर्गत ₹ 650/- में अधिगृहित करने का प्रस्ताव भेजा।
इधर नगर पालिका ने मिस्टर हन्ना से कहा कि वे इस योजना का ठेका दस हजार रुपये में खुद ही ले लें। नगर पालिका ने मिस्टर हन्ना को योजना की लागत राशि का अग्रिम भुगतान करने की भी पेशकश कर दी। मिस्टर हन्ना की सहमति के बाद नगर पालिका ने रोप -वे योजना का दस हजार रुपये का टेंडर उनके नाम स्वीकृत कर दिया था। नगर पालिका का तर्क था कि दार्जिलिंग में दस हजार रुपये की लागत से एक हजार फीट लंबी रोप- वे लाइन डाली गई है, जबकि मिस्टर हन्ना उतनी ही राशि में तीन हजार फीट लंबी रोप-वे बनाने जा रहे हैं। वह भी बिना अग्रिम भुगतान के।
नगर पालिका ने रोप -वे योजना के लिए सरकार से नारायण नगर, चोरखेत और सडियाताल में जमीन माँगी। इसी दरम्यान पीडब्ल्यूडी के अधिशासी अभियंता एफ.बी.हेंसलोव ने मिस्टर हन्ना की रोप-वे योजना पर अपनी विस्तृत आख्या दी थी।
अभी यह प्रस्ताव कुमाऊँ के वरिष्ठ सहायक आयुक्त के विचाराधीन था। प्रस्ताव के अनुमोदन के बाद जमीन पर काम शुरू हो पाता कि 6 मई,1888 को हरमिटेज, स्लीपी हॉल और क्रेग कॉटेज के तत्कालीन स्वामी कर्नल डब्ल्यू. बैरन और लौंगडेल के तत्कालीन मालिक कुंवर रणजीत सिंह ने इस योजना पर अपनी आपत्ति दर्ज करा दी। कर्नल डब्ल्यू. बैरन का कहना था कि उन्होंने हाल ही में हरमिटेज को दोमंजिला किया है। प्रस्तावित रोप-वे उनके बरामदे से दृष्टिगोचर होगी,जिससे उनकी निजता भंग होने की आशंका है। कर्नल बैरन ने अपने पत्र में लिखा कि नैनीताल के ‘बड़े फायदे’ के लिए उनकी संपत्ति को नुकसान पहुँचाना उचित नहीं है। इस मामले में लंबी लिखा-पढ़ी हुई। अंततः यह मामला नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंसेज के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर के दरबार तक जा पहुँचा। प्रोविंसेज के गवर्नर ने कर्नल डब्ल्यू. बैरन और कुंवर रणजीत सिंह की आपत्तियों का संज्ञान लिया। इस बारे में नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंसेज एंड अवध के सचिव आर. स्मीटन ने 18 मई,1888 को कुमाऊँ के कमिश्नर को पत्र भेजा। पत्र में कहा गया कि लेफ्टिनेंट गवर्नर किसी भी नागरिक के निजी अधिकारों के हनन के पक्ष में नहीं हैं। कर्नल डब्ल्यू. बैरन और कुंवर रणजीत सिंह की आपत्तियों के मद्देनजर रोप -वे के लिए वैकल्पिक मार्ग खोजा जाए। जिसमें किसी की निजी भूमि नहीं आ रही हो या किसी को भी कम से कम नुकसान हो। इसके बाद रोप -वे की यह योजना हवा में ही अटक कर रह गई।
1947 में अंग्रेज अपने वतन लौट गए। भारत आजाद हो गया। आजादी के 78 साल बीत जाने के बावजूद नैनीताल को रोप-वे से जोड़ने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई।
जब नैनीताल में यातायात के वैकल्पिक व्यवस्थाएं खोजने का यह मुआमला चल रहा था, तब यहाँ यांत्रिक यातायात की शुरूआत नहीं हुई थी। नैनीताल गाड़ियों की भीड़ -भाड़ और शोरगुल से निरापद था। आज जबकि नैनीताल मनुष्यों की अति भीड़ से भर गया है। नगर के हरेक कोने में दोपहिया और चौपहिया गाड़ियां बिछ-सी गईं हैं। रोज-ब-रोज गाड़ियों का तांता बढ़ता ही चला जा रहा है। नगर के पैदल रास्ते भी छोटी-बड़ी गाडियों की भीड़ से अछूते नहीं हैं। नगर की सड़कों की क्षमता से कई गुना अधिक गाड़ियों के चलते आम लोगों का पैदल चल पाना दुष्कर हो गया है। हकीकत यह है कि आम लोगों के पैदल चलने के लिए सड़क -रास्ते बचे ही नहीं हैं। इसके बावजूद आजाद भारत के आधुनिक योजनाकारों ने इस समस्या का दीर्घकालिक हल खोजने की दिशा में सोचने की जरूरत तक महसूस नहीं की है। नतीजतन यहाँ के पर्यावरण और मौसमियत, दोनों को भारी क्षति पहुँच रही है। यहाँ वायु और ध्वनि प्रदूषण बढ़ा है। गर्मियों के मौसम में अपनी ठंडी बयार के लिए ख्यात नैनीताल में अब गर्मी का अहसास होने लगा है। इधर कुछ अरसे से सुनने में आ रहा है कि सरकार रानीबाग से नैनीताल तक रोप-वे बनाने की योजना पर काम कर रही है। फिलवक्त प्रस्तावित रोप-वे योजना जन संचार माध्यमों की सुर्खियों में ही उलझी हुई है। ‘का बरसा जब कृषि सुखाने।’

