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April 28, 2025

अद्वैत वेदांत के प्रकांड पंडित अंगविभूति अष्टावक्र

News Deskby News Desk
in उत्तराखंड, देश, धार्मिक, शिक्षा
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अद्वैत वेदांत के प्रकांड पंडित अंगविभूति अष्टावक्र
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अद्वैत वेदांत के प्रकांड पंडित अंगविभूति अष्टावक्र

(शिवशंकर सिंह पारिजात-विनायक फीचर्स)

इतिहास-संस्कृति एवं धर्म-दर्शन व अध्यात्म की भूमि रहे अंगक्षेत्र में अनेक दार्शनिक, चिंतक, मनीषी तथा लेखक हुए हैं जिन्होंने अपनी प्रज्ञा के बल पर ऊंचे मुकाम हासिल किये। ऐसे मनीषियों में हाथियों के उपचार पर विश्व के पहले ग्रंथ ‘हस्त्य आयुर्वेद’ के रचयिता पालकप्य मुनि, बौद्ध धर्म विषयक ‘थेरगाथा’ के लेखकों में एक बुद्ध के समकालीन सोणकोलविश, प्रमुख जैन ग्रंथ ‘लंकावतार सूत्र’ के प्रणेता विराज जीन, ‘दशवैकालिक सूत्र’ के लेखक जैन धर्म के पांचवें धर्मगुरु स्वंभव आदि के नाम आते हैं। विद्वत जनों के इस आभा-मंडल में अंगक्षेत्र स्थित कहलगांव के दो ऐसे विद्वानों के नाम भी शामिल हैं जिनके विचारों और दर्शन से भारत ही नहीं पूरी दुनिया प्रभावित हुई। इनमें से एक हैं विक्रमशिला बौद्ध महाविहार के महान् आचार्य दीपांकर श्रीज्ञान अतिश जो बौद्ध धर्म के अंतिम प्रमुख आचार्य माने जाते हैं और दूसरे हैं अद्वैत वेदांत के प्रकांड पंडित महर्षि अष्टावक्र।

यह भी विडंबना रही कि विक्रमशिला के देश के प्रमुख बौद्ध महाविहारों में शुमार होने के कारण इसके प्रमुख आचार्य दीपांकर के व्यक्तित्व व कृतित्व से लोग भलीभांति परिचित हैं, किंतु अष्टावक्र ऋषि के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं थी जबकि उनके पिता कहोल (कहोड़) ऋषि से सभी परिचित थे जिनकी तपोभूमि पवित्र उत्तरवाहिनी गंगा तट पर स्थित कहलगांव थी। कहोल ऋषि पर ही इस नगरी का नाम कहलगांव पड़ा है। किंतु पिछले साल कहलगांव में राघव परिवार द्वारा आयोजित भव्य श्रीराम कथा के दौरान अष्टावक्र के जीवन दर्शन के मर्मज्ञ व ‘अष्टावक्र’ शीर्षक महाकाव्य के रचयिता पद्मविभूषण जगतगुरु श्रीराम भद्राचार्य के प्रवचनों के माध्यम से राम कथा के साथ अंगभूमि के पुत्र अष्टावक्र के उज्जवल व्यक्तित्व व कृतित्व के बारे में जाना तो कहलगांव के सुधी निवासी उद्वेलित हो उठे और अष्टावक्र के नाम पर भव्य मंदिर बनाने का संकल्प लिया। जगतगुरू श्रीराम भद्राचार्य की प्रेरणा से राघव परिवार के नेतृत्व में कहलगांव में एक वर्ष की अल्प अवधि में ऋषि अष्टावक्र का मंदिर बनकर तैयार हो गया है।

ऋृषि अष्टावक्र अयोध्या नरेश राजा दशरथ और विदेह (मिथिला) के राजा जनक के समकालीन थे। ऋषि अष्टावक्र के बारे में वाल्मिकी रचित ‘रामायण’ के ‘युद्ध काण्ड’ और ‘महाभारत’ के ‘वन पर्व’ सहित भवभूति द्वारा रचित ‘उत्तर रामचरित’ सरीखे ग्रंथों में चर्चा की गई है।

कहते हैं कि वे दुनिया के ऐसे पहले विद्वान हैं जिन्होंने सत्य और ज्ञान की व्याख्या शास्त्रों में वर्णित सिद्धांतों-नियमों से परे वास्तविकता के धरातल पर की। ऋषि अष्टावक्र के विचार और दर्शन सुप्रसिद्ध ‘अष्टावक्र गीता’ में संग्रहित हैं।

ऋषि अष्टावक्र के नामकरण के बारे में ऐसी कथा है कि जब वे अपनी माता सुजाता के गर्भ में थे तो अपने पिता कहोल ऋषि द्वारा किये जाने वाले वेद के पाठ की त्रुटियों की ओर इशारा कर दिया। इस पर स्वभाव से अति क्रोधी ऋषि कहोल ने उन्हें यह श्राप दे दिया कि वे आठ अंगों से वक्र अर्थात टेढ़े-मेढ़े पैदा होंगे। इस कारण उनका नाम अष्टावक्र पड़ गया। अपने शरीर की दिव्यांगता और इसके कारण लोगों द्वारा उनके उपहास उड़ाये जाने के बावजूद सामथ्र्यवान तथा दृढ़ संकल्पित अष्टावक्र कभी डिगे नहीं व सदैव ज्ञान अर्जन की दिशा में तत्पर रहे। अपनी उद्भट विद्वता का परिचय उन्होंने अपने बाल्यकाल में ही दे दिया था। अष्टावक्र के पिता कहोल ऋषि स्वयं एक पहुंचे हुए विद्वान थे। किंतु मिथिला के राजा जनक के दरबार में आयोजित ज्ञान-सभा में आचार्य बंदिन नामक विद्वान से शास्त्रार्थ में पराजित हो जाने के कारण उन्हें शर्त के अनुसार जल-समाधि लेकर प्राण गंवाने पड़े थे। अपने पिता ऋषि कहोल की इस तरह से मार्मिक मृत्यु का समाचार सुन बालक अष्टावक्र मर्माहत हो उठे, किंतु उन्होंने अपने धैर्य को नहीं त्यागा और अहंकारी बंदिन से प्रतिशोध लेने की ठानी। कठिन परिश्रम कर उन्होंने सम्यक ज्ञान अर्जित किया और मिथिला पहुंच गये। हालांकि शरीर में आठ वक्र होने से अलग शरीराकृति के कारण राजा जनक की ज्ञान सभा में शरीक होने हेतु उन्हें दरबारियों के अवरोधों का सामना करना पड़ा। किंतु अपने आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए अंतत: राजा जनक की ज्ञान सभा में पहुंच कर उन्होंने आचार्य बंदिन को शास्त्रार्थ हेतु चुनौती दी। लंबे शास्त्रार्थ के उपरांत अष्टावक्र ने अंतत: बंदिन को पराजित कर दिया। श्रृषि अष्टावक्र एक उद्भट विद्वान होने के साथ एक सद्गुणी व्यक्ति भी थे। अपने पिता ऋषि कहोल की मृत्यु से आहत होने के बावजूद वे प्रतिशोध की भावना से ग्रसित नहीं हुए। शास्त्रार्थ के शर्तों के अनुसार पराजित बंदिन को जल-समाधि हेतु बाध्य नहीं किया और अपनी महानता और उदारता का परिचय देते हुए उन्होंने बंदिन को क्षमा कर दिया और जल-समाधि की परंपरा का अंत कर दिया। तो ऐसे ज्ञानी, उदार और दृढ़ निश्चयी थे अंग विभूति ऋषि अष्टावक्र जिनके दर्शन आज भी हमें प्रेरित करते हैं। *(लेखक जनसम्पर्क विभाग के पूर्व उपनिदेशक हैं) (विनायक फीचर्स)*

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