डॉ. मदन मोहन पाठक, वरिष्ठ ज्योतिषाचार्य
भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन और समृद्ध संस्कृति है। यहां का प्रत्येक पर्व केवल उत्सव नहीं बल्कि आध्यात्मिक साधना और सामाजिक समरसता का माध्यम है। किंतु आज देखा जा रहा है कि एक ही पर्व अलग-अलग दिनों में मनाया जा रहा है। कहीं कृष्ण जन्माष्टमी सप्तमी को, तो कहीं अष्टमी को। कहीं हर तालिका तीज एक दिन पहले, तो कहीं अगले दिन। इस तरह के विरोधाभास से सामान्य जन भ्रमित हो रहा है।
तो आखिर कारण क्या हैं? आइए विभिन्न पक्षों पर विचार करें—
1. ज्योतिषियों की भरमार और निर्णय का अभाव
आजकल “ज्योतिषी” शब्द बड़ा सरल हो गया है। बिना गहन अध्ययन, बिना परंपरागत दीक्षा और बिना वेद-शास्त्रों की सही समझ के लोग स्वयं को “पंडित” या “ज्योतिषाचार्य” घोषित कर देते हैं।
सोशल मीडिया और इंटरनेट ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है।
बिना तर्क और शास्त्रीय आधार के तिथियों की घोषणाएं कर दी जाती हैं।
परिणामस्वरूप जनता में भ्रम फैलता है और पर्व कई-कई दिनों तक “मनाया” जाने लगता है।
2. शास्त्रज्ञान का अभाव
हमारे धर्मग्रंथों में तिथियों और पर्वों के निर्धारण के लिए स्पष्ट नियम दिए गए हैं।
निर्णय सिंधु, धर्म सिन्धु, निर्णयामृत, कालमाधव आदि ग्रंथों में पर्व-नियम स्पष्ट हैं।
परंतु बहुत-से लोग इन ग्रंथों का गहराई से अध्ययन नहीं करते।
परिणामस्वरूप केवल पंचांग देखकर निर्णय कर लिया जाता है, जबकि पंचांग स्वयं शास्त्रीय निर्णय पर आधारित होना चाहिए।
3. पंचांगों की असमानता
भारत में आज अनेक पंचांग प्रचलित हैं—
वाराणसी, उज्जैन, दिल्ली, दक्षिण भारत और नेपाल तक अलग-अलग पद्धतियां हैं।
कुछ पंचांग “सूर्य सिद्धांत” पर आधारित हैं, तो कुछ “ड्रिक गणना” (खगोल सॉफ़्टवेयर आधारित गणना) पर।
यही भिन्नता पर्व-निर्णय में मतभेद उत्पन्न करती है।
4. धर्म का कोई एक “संविधान” न होना
ईसाई धर्म में “बाइबिल”, इस्लाम में “कुरान” जैसे केन्द्रीय धार्मिक ग्रंथ हैं, जिनके आधार पर पूरी व्यवस्था चलती है।
हिंदू धर्म में ग्रंथों की संख्या अत्यधिक है—वेद, उपनिषद, पुराण, स्मृतियां, आचार-ग्रंथ।
इस विशालता का लाभ है, लेकिन एक केंद्रीय “धर्म-संविधान” का अभाव भी है।
यदि कोई अखिल भारतीय स्तर पर निर्णय करने वाली संस्था या “धर्म संसद” सक्रिय और सर्वमान्य हो, तो यह भ्रम दूर हो सकता है।
5. नेतृत्व का अभाव
आज हमारे समाज में कोई एक ऐसा मान्य धर्मगुरु या आचार्य नहीं है, जिसकी घोषणा को पूरा देश एक स्वर से स्वीकार कर ले।
अलग-अलग परंपराएँ अपने-अपने गुरुओं और मठों के अनुसार चल रही हैं।
यही कारण है कि एक ही पर्व उत्तर भारत और दक्षिण भारत में अलग-अलग दिन मनाया जाता है।
समाधान की दिशा
1. ज्योतिष शिक्षा का शुद्धिकरण – केवल योग्य और प्रमाणित विद्वानों को ही धर्म-निर्णय की जिम्मेदारी मिले।
2. एकीकृत पंचांग – पूरे भारतवर्ष के लिए एक मानक पंचांग तैयार किया जाए, जिसमें शास्त्र और आधुनिक खगोल विज्ञान का समन्वय हो।
3. धर्म संसद / परिषद् – एक ऐसी सर्वोच्च परिषद बने जो पर्व-निर्णय करे और उसकी घोषणा सभी संस्थाएं मानें।
4. जन-जागरण – जनता को यह शिक्षा दी जाए कि पर्व का मूल भाव आस्था और भक्ति है, तिथि का विरोधाभास द्वितीय है।
निष्कर्ष
हिंदू धर्म की शक्ति उसकी विविधता में है, परंतु विविधता यदि विरोधाभास बन जाए तो यह कमजोरी बन जाती है।
समय की मांग है कि हम अपने प्राचीन शास्त्रों का गंभीर अध्ययन करें, परंपरा का सम्मान करें और साथ ही आधुनिक विज्ञान की सहायता से स्पष्ट एवं सर्वमान्य निर्णय लें। तभी हमारे व्रत-त्योहार अपनी गरिमा और भव्यता के साथ मनाए जा सकेंगे।
✍️ डॉ. मदन मोहन पाठक वरिष्ठ ज्योतिषाचार्य
अल्मोड़ा/हल्द्वानी उत्तराखण्ड

