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July 10, 2024

बदलते समय में साहित्य में लोकतांत्रिक मूल्य

News Deskby News Desk
in उत्तराखंड
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विवेक रंजन श्रीवास्तव – विभूति फीचर्स
लोकतंत्र एक नैसर्गिक मानवीय मूल्य होता है। इसलिए, वसुधैव कुटुम्बकम् की वैचारिक उद्घोषणा करने वाले वैदिक भारतीय साहित्य में लोकतांत्रिक मूल्य खोजना नहीं  पड़ता, यह अव्यक्त रूप से भारतीय साहित्य में समाहित है। वैज्ञानिक अनुसंधानों, विशेष रूप से संचार क्रांति जनसंचार (मीडिया एवं पत्रकारिता) एवं सूचना प्रौद्योगिकी (इलेक्ट्रानिक एवं सोशल मीडिया) तथा आवागमन के संसाधनों के विकास ने तथा विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्था की परस्पर प्रत्यक्ष व परोक्ष निर्भरता ने इस सूत्र वाक्य को आज मूर्त स्वरूप दे दिया है कि दुनिया एक समदर्शी गांव है। हम भूमण्डलीकरण के युग में जी रहे हैं। सारा विश्व कम्प्यूटर चिप और बिट में सिमट गया है। लेखन, प्रकाशन, पठन पाठन में नई प्रौद्योगिकी की दस्तक से आमूल परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं। नई पीढ़ी अब बिना कलम कागज के  कम्प्यूटर पर ही  लिख रही है, प्रकाशित हो रही है, और पढ़ी जा रही है। ब्लाग तथा सोशल मीडिया वैश्विक पहुंच के साथ वैचारिक अभिव्यक्ति के सहज, सस्ते, सर्वसुलभ, त्वरित साधन बन चुके हैं। ये संसाधन स्वसंपादित हैं, अत: इस माध्यम से प्रस्तुति में मूल्यनिष्ठा अति आवश्यक है, सामाजिक व्यवस्था के लिये यह वैज्ञानिक उपलब्धि एक चुनौती बन चुकी है।  सामाजिक बदलाव में सर्वाधिक महत्व विचारों का ही होता है।

लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के तीन संवैधानिक स्तंभों के बाद पत्रकारिता को  चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता दी गई क्योकि पत्रकारिता वैचारिक अभिव्यक्ति का माध्यम होता है, आम आदमी की नई प्रौद्योगिकी तक  पहुंच और इसकी  त्वरित स्वसंपादित प्रसारण क्षमता के चलते ब्लाग जगत व सोशल मीडिया को लोकतंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में देखा जा रहा है।

वैश्विक स्तर पर पिछले कुछ समय में कई सफल जन आंदोलन सोशल मीडिया के माध्यम से ही खड़े हुये हैं। कई फिल्मों में भी सोशल मीडिया के द्वारा जनआंदोलन खड़े करते दिखाये गये हैं। हमारे देश में भी बाबा रामदेव, अन्ना हजारे के द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध  तथा दिल्ली के नृशंस सामूहिक बलात्कार के विरुद्ध बिना बंद, तोडफ़ोड़ या आगजनी के चलाया गया जन आंदोलन, और उसे मिले जन समर्थन के कारण सरकार को विवश होकर उसके सम्मुख किसी हद तक झुकना पड़ा। इन  आंदोलनो में विशेष रुप से नई पीढ़ी ने इंटरनेट, मोबाइल एस एम एस और मिस्डकाल के द्वारा अपना समर्थन व्यक्त किया। मूल्यनिष्ठा के अभाव में ये त्वरित प्रसारण के नये संसाधन अराजकता भी फैला सकते हैं, हमने देखा है कि किस तरह कुछ समय पहले फेसबुक के जरिये पूर्वोत्तर के लोगों पर अत्याचार की झूठी खबर से दक्षिण भारत से उनका सामूहिक पलायन होने लगा था। स्वसंपादन की सोशल मीडिया की शक्ति उपयोगकर्ताओ से मूल्यनिष्ठा व परिपक्वता की अपेक्षा रखती है। समय आ गया है कि फेक आई डी के जरिये सनसनी फैलाने के इलेक्ट्रानिक उपद्रव से बचने के लिये इंटरनेट आई डी का पंजियन वास्तविक पहचान के जरिये करने के लिये कदम उठाये जावें।

आज जनसंचार माध्यमो से सूचना के साथ ही साहित्य की अभिव्यक्ति भी हो रही है।  साहित्य समय सापेक्ष होता है। साहित्य की इसी सामयिक अभिव्यक्ति को आचार्य हजारी प्रसाद व्दिवेदी जी ने कहा था कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। आधुनिक तकनीक की भाषा में कहें तो जिस तरह डैस्कटाप, लैपटाप, आईपैड, स्मार्ट फोन विभिन्न हार्डवेयर हैं जो मूल रूप से इंटरनेट  के संवाहक हैं एवं साफ्टवेयर से संचालित हैं। जनसामान्य की विभिन्न आवश्यकताओं की सुविधा हेतु इन माध्यमो का उपयोग हो रहा है।  कुछ इसी तरह साहित्य की विभिन्न विधायें कविता, कहानी, नाटक, वैचारिक लेख, व्यंग, गल्प आदि शिल्प के विभिन्न हार्डवेयर हैं, मूल साफ्टवेयर संवेदना है, जो इन साहित्यिक विधाओ में रचनाकार की लेखकीय विवशता के चलते अभिव्यक्त होती है।  परिवेश व समाज का रचनाकार के मन पर पडऩे  प्रभाव ही है, जो रचना के रूप में जन्म लेता है। लेखन की  सारी विधायें इंटरनेट की तरह भावनाओं तथा संवेदना की संवाहक हैं। साहित्यकार जन सामान्य की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है। बहुत से ऐसे दृश्य जिन्हें देखकर भी लोग अनदेखा कर देते हैं, रचनाकार के मन के कैमरे में कैद हो जाते है। फिर वैचारिक मंथन की प्रसव पीड़ा के बाद कविता के भाव, कहानी की काल्पनिकता, नाटक की निपुणता, लेख की ताकत और व्यंग में तीक्ष्णता के साथ एक क्षमतावान  रचना लिखी जाती है। जब यह रचना पाठक प?ता है तो प्रत्येक पाठक के हृदय पटल पर उसके स्वयं के  अनुभवो एवं संवेदनात्मक पृष्ठभूमि के अनुसार अलग अलग चित्र संप्रेषित होते हैं।

वर्तमान  में विश्व में  आतंकवाद, देश में सांप्रदायिकता, जातिवाद, सामाजिक उत्पीडऩ तथा आर्थिक शोषण आदि के सूक्ष्म रूप में हिंसा की मनोवृत्ति समाज में  तेज़ी से फैलती जा रही है, यह दशा हमारी शिक्षा, समाज में नैतिक मूल्यो के हृास, सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं की गतिविधियों और हमारी संवैधानिक व्यवस्थाओ व आर्थिक प्रक्रिया पर  प्रश्नचिन्ह लगाती  है, साथ ही उन सभी प्रक्रियाओं को भी कठघरे में खड़ा कर देती है जिनका संबंध हमारे संवेदनात्मक जीवन से है। समाज से सद्भावना व संवेदना का विलुप्त होते जाना यांत्रिकता को जन्म दे रहा है। यही अनेक सामाजिक बुराईयो के पनपने का कारण है। स्त्री भ्रूण हत्या, नारी के प्रति बढ़ते अपराध, चरित्र में गिरावट, चिंतनीय हैं।  हमारी सभी साहित्यिक विधाओं और कलाओं का  औचित्य तभी है जब वे समाज के सम्मुख उपस्थित ऐसे ज्वलंत अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजने का यत्न करती दिखें। समाज की परिस्थितियों की अवहेलना साहित्य और पत्रकारिता कर ही नही सकती। क्योंकि साहित्यकार या पत्रकार  का दायित्व है कि वह किंकर्तृतव्यविमूढ़ स्थितियों में भी समाज के लिये मार्ग प्रशस्त करे। समाज का नेतृत्व करने वालो को भी राह दिखाये।

राजनीतिज्ञों के पास अनुगामियो की भीड़ होती है पर वैचारिक दिशा दर्शन के लिये वह स्वयं साहित्य का अनुगामी होता है। साहित्यकार का दायित्व है और साहित्य की चुनौती होती है कि वह देश काल परिस्थिति के अनुसार समाज के गुण अवगुणो का अध्ययन एवं विश्लेषण करने की अनवरत प्रक्रिया का हिस्सा बना रहे और शाश्वत तथ्यो का अन्वेषण कर उन्हें लोकप्रिय तरीके से समुचित विधा में प्रस्तुत कर समाज को उन्नति की ओर ले जाने का वैचारिक मार्ग बनाता रहे। समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का दायित्व मीडिया व पत्रकारिता का ही है। इसके लिये साहित्यिक संसाधन उपलब्ध करवाना ही नही, राजनेताओं को ऐसा करने के लिये अपनी लेखनी से विवश कर देने की क्षमता भी लोकतांत्रिक प्रणाली में पत्रकारिता के जरिये रचनाकार को सुलभ है।

प्राचीन शासन प्रणाली में यह कार्य राजगुरु, ऋषि व  मनीषी करते थे। उन्हें राजा स्वयं सम्मान देता था। वे राजा के पथ दर्शक की भूमिका का निर्वाह करते थे। हमारे महान ग्रंथ ऐसे ही विचारकों ने लिखे हैं जिनका महत्व शाश्वत  है। समय के साथ  बाद में कुछ राजाश्रित कवियो ने जब अपना यह मार्गदर्शी नैतिक दायित्व भुलाकर केवल राज स्तुति का कार्य संभाल लिया तो साहित्य को उन्हें भांड कहना पड़ा। उनकी रचनाओ ने भले ही उनको किंचित धन लाभ करवा दिया हो पर समय के साथ ऐसी लेखनी का साहित्यिक मूल्य स्थापित नही हो सका। कलम की ताकत तलवार की ताकत से सदा से बड़ी रही है। वीर रस के कवि राजसेनाओ का हिस्सा रह चुके हैं, यह तथ्य इस बात का उद्घोष करता है कि कलम के प्रभाव की उपेक्षा संभव नही। जिस समय में युद्ध ही राज धर्म बन गया था तब इस तरह की वीर रस की रचनायें हुई। जब  विदेशी आक्रांताओ के द्वारा हमारी संस्कृति का दमन हो रहा था तब तुलसी हुये।भक्तिरस की रचनायें हुई। अकेली रामचरित मानस, भारत से दूर विदेशों में ले जाये गये मजदूरों को भी अपनी संस्कृति की जड़ों को पकड़े रखने का संसाधन बनी।

जैसे जैसे नई कम्प्यूटर साक्षर पीढ़ी बड़ी होगी, स्मार्ट सिटी बनेंगी,

इंटरनेट और सस्ता होगा तथा आम लोगो तक इसकी पहुंच बढ़ेगी यह वर्चुएल लेखन  और भी ज्यादा सशक्त होता जायेगा, एवं  भविष्य में  लेखन क्रांति का सूत्रधार बनेगा। युवाओं में बड़ी कम्प्यूटर साक्षरता से उनके द्वारा देखे जा रहे ब्लाग के विषय युवा केंद्रित अधिक हैं। विज्ञापन, क्रय विक्रय, शैक्षिक विषयों के ब्लाग के साथ साथ स्वाभाविक रूप से जो मुक्ताकाश कम्प्यूटर और एंड्रायड मोबाईल, सोशल नेट्वर्किंग, चैटिंग, ट्विटिंग,  ई-पेपर, ई-बुक, ई-लाइब्रेरी, स्मार्ट क्लास, ने सुलभ करवाया है, बाजारवाद ने उसके नगदीकरण के लिये इंटरनेट के स्वसंपादित स्वरूप का भरपूर दुरुपयोग किया है। मूल्यनिष्ठा के अभाव में  हिट्स बटोरने हेतु उसमें सैक्स की वर्जना, सीमा मुक्त हो चली है।

प्रिंट मीडिया में चर्चित ब्लाग के विजिटर तेजी से बढ़ते हैं, और अखबार के पन्नो में ब्लाग तभी चर्चा में आता है जब उसमें कुछ विवादास्पद, कुछ चटपटी, बातें होती हैं, इस कारण अनेक लेखक  गंभीर चिंतन से परे दिशाहीन होते भी दिखते हैं। हिंदी भाषा का कम्प्यूटर लेखन साहित्य की समृद्धि में  बड़ी भूमिका निभाने की स्थिति में हैं, ज्यादातर हिंदी ब्लाग कवियों, लेखको, विचारकों के सामूहिक या व्यक्तिगत ब्लाग हैं जो धारावाहिक किताब की तरह नित नयी वैचारिक सामग्री पाठकों तक पहुंचा रहे हैं। पाडकास्टिंग तकनीक के जरिये आवाज एवं वीडियो के ब्लाग, मोबाइल के जरिये ब्लाग पर चित्र व वीडियो क्लिप अपलोड करने की नवीनतम तकनीकों के प्रयोग तथा मोबाइल पर ही इंटरनेट के माध्यम से ब्लाग तक पहुंच पाने की क्षमता उपलब्ध हो जाने से इलेक्ट्रानिक लेखन और भी लोकप्रिय हो रहा है।

आज का   लेखक और पत्रकार  राजाश्रय से मुक्त कहीं अधिक स्वतंत्र है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार हमारे पास है।   लेखन, प्रकाशन, व वांछित पाठक तक त्वरित पहुँच बनाने के तकनीकी संसाधन अधिक सुगम हैं। अभिव्यक्ति की शैली तेजी से बदली है। माइक्रो ब्लागिंग इसका सशक्त उदाहरण है। पर आज नई पीढ़ी में  पठनीयता का तेजी हृास हुआ है। किताबों की मुद्रण संख्या में कमी हुई है। आज  चुनौती है कि पठनीयता के अभाव को समाप्त करने के लिये पाठक व लेखक के बीच उँची होती जा रही दीवार तोड़ी जाये।

पाठक की जरूरत के अनुरूप लेखन तो हो पर शाश्वत वैचारिक चिंतन मनन योग्य लेखन की ओर पाठक की रुचि विकसित की  जाये। आवश्यक हो तो इसके लिये पाठक की जरूरत के अनुरूप शैली व विधा बदली जा सकती है, प्रस्तुति का माध्यम भी बदला जा सकता है।अखबारो में नये स्तंभ बनाये जा सकते हैं।  यदि समय के अभाव में पाठक छोटी रचना चाहता है, तो क्या फेसबुक की संक्षिप्त टिप्पणियों को या व्यंग के कटाक्ष करती क्षणिकाओं को साहित्यिक विधा की मान्यता दी जा सकती है? यदि पाठक किताबों तक नही पहुँच रहे तो क्या किताबो को पोस्टर के वृहद रूप में पाठक तक पहुंचाया जावे? क्या टी वी चैनल्स पर रचनाओ की चर्चा के प्रायोजित कार्यक्रम प्रारंभ किये जावे? ऐसे प्रश्न भी विचारणीय हैं।

जो भी हो हमारा समय उस परिवर्तन  का साक्षी  है जब समाज में  कुंठाये, रूढिय़ां, परिपाटियां टूट रही हैं। समाज हर तरह से उन्मुक्त हो रहा है, परिवार की इकाई वैवाहिक संस्था तक बंधन मुक्त हो रही है, अत: हमारी  पीढ़ी की चुनौती अधिक है। आज हम जितनी मूल्यनिष्ठा और गंभीरता से अपने साहित्यिक  दायित्व में लोक मूल्यों का निर्वहन करेंगे कल इतिहास में हमें उतना ही अधिक महत्व दिया जावेगा। विभूति फीचर्स

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